बरसात में पतझड़

हंसकर फिर रोना अब आदत हो चुकी है 
कुछ अर्से से ऐसी कयामत हो चुकी है
हर शब्द मेरी आंखों से निकलता है अब तो 
यूं ही लिखने की आदत हो चुकी है,
गमों के अंधेरों में वह बंद हो चुकी है
सुबह से फिर शाम अब यूं ही ढल चुकी है
आंसुओं के साथ फिर से भीगी है वह लड़की ऐसी कई और भी बरसाते हो चुकी है,
इतनी बार दर्द से मुलाकाते हो चुकी है 
अपनों ने साथ छोड़ा तन्हाई दोस्त बन चुकी है 
खुद ही छुपाती रही वह दुख अपने अंदर 
वह मासूम चलता फिरता बूत बन चुकी है,
पत्तों की सरसराहट तक बंद हो चुकी है 
दर्द और तन्हाई अब और बढ़ चुकी है
गम इतना भरा है दिल में की 
वह जिंदगी खोने पर मजबूर हो चुकी है,
मौत की वीरानियो की और बढ़ चुकी है 
अपनों के लिए अपनी ही जन्नत छोड़ चुकी है 
उसका हर एक सपना टूटता है इस कदर की
हर एक बरसात में वह पतझड़ हो चुकी है।

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